विस्थापन की त्रासदी पर करारा व्यंग्य है नाटक ‘पार्क…
लखनऊ : उप्र संगीत नाटक अकादमी लखनऊ संस्कृति विभाग उ.प्र. की रसमंच योजना के अंतर्गत नाट्य वास्तु सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था कानपुर की प्रस्तुति हिन्दी नाटक पार्क का मंचन एसएनए के वाल्मिकी रंगशाला में किया गया।नाटक का लेखन मानव कौल और निर्देशक प्रवीन कुमार अरोड़ा ने किया है।
कथानुसार तीन बेंचों वाले पार्क में धूप और सिग्नल से परेशान उदय आराम से बैठने के लिए छाया वाली बेंच चुनता है। नरेश पार्क में समय बिताने के लिए पार्क में सोना चाहता है जब वो छाया वाली बेंच पर उदय को बैठे देखता है तो उलझन में आ जाता है और कुटिलता से उदय को उस बेंच से उठने पर मजबूर कर देता है तो उदय थोड़ी धूप वाली बेंच पर बैठ जाता है। इसी बीच मदन पार्क में प्रवेश करता है और वो उस जगह बैठना चाहता है जहां अभी उदय आकर बैठा है। मदन कई प्रकार से बातें बना बना कर उदय कि जगह बैठना चाहता है। लेकिन अब उदय किसी कीमत पर उस बेंच से दोबारा उठने को तैयार नहीं। इसी के साथ शुरू होता है जगह पर बैठने और उठाने का मनोरंजक सिलसिला। तो क्या अब आप मेरे कम हिन्दू होने पर मुझे मारेंगे। जातिवादि मानसिकता को दशार्ता है।
लोगों को जब उनकी जगह से उठा कर दूसरी जगह फेंक दिया जाता है तो वो कभी उसे अपनी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। वो उनकी पुश्तें पूरी जिंदगी इंतजार करती हैं कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा और उन्हें वापस बुलाकर उनकी जगह दे दी जाएगी। कोई भी अपनी जगह इतने प्यार से नहीं छोड़ता, अपनी जगह छोड़ने में तकलीफ है, तो आपको अपने स्वर में जबरदस्ती का भाव लाना पड़ेगा, आदि संवाद विस्थापन कि त्रासदी को बयान करते हैं। यदि लोगों को बार बार उनकी जगह से उठाओगे तो उनके पास हथियार उठाने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचेगा, ये सब लाइनें नक्सल समस्या को उजागर करता है।